कोरोना से लड़ने में मदद करते असली आइकॉन

हर समाज में प्रतिमान (आइकॉन) बनाने की एक प्रक्रिया होती है, लेकिन अगर आइकॉन गलत बनने लगें तो समाज की दिशा और दशा बदलने लगती है। इन  आइकॉन की सही पहचान संकट की घड़ी में ही होती है, जब जिजीविषा पर असली देश-प्रेम प्रभावी होता है। आईटीबीपी और सेना की क्वारंटाइन केन्द्रों की टीमों के सदस्य पिछले 47 दिनों से अपने घर नहीं गए हैं। यहां के डॉक्टर, नर्सें और सपोर्ट स्टाफ दिन-रात बाहर से लौटे कोरोना के संदिग्ध भारतीयों के इलाज और तीमारदारी में लगे हुए हैं।


48 घंटों में एक बिल्डिंग को अस्पताल में तब्दील करना और फिर जांच सुविधाओं व चिकित्सकीय ढांचा खड़ा करना किसी जंग में फतह पाने से कम नहीं रहा होगा। ठीक इसी के उलट गाजियाबाद में दो डॉक्टरों ने इस महामारी में इमरजेंसी ड्यूटी पर आने से मना कर दिया और बीमारी का बहाना कर घर बैठ गए। इस राष्ट्रीय संकट की घड़ी में एक वर्ग जान की परवाह न करके पूरे देश को बचाने में लगा है। जबकि दूसरा वर्ग महंगे दाम पर मास्क और दवाएं बेचकर या नकली सेनेटाइजर बाजार में लाकर अपनी गिद्ध-प्रवृत्ति से मानवता को शर्मसार कर रहा है।


एक राज्य में सत्ता को लेकर जंग चल रही है और जनता के वोटों से माननीय बने लोगों के पाला बदलने का खतरा राजनीतिक वर्ग की असंवेदनशीलता का प्रदर्शन कर रहा है। इन माननीयों का कर्तव्य तो क्षेत्र में जाकर दिन-रात स्वास्थ्य सेवाओं में मदद करना, लोगों को स्वच्छता के प्रति जागरूक करना और भय की जगह संकट से लड़ने का उत्साह भरना होना चाहिए था। लेकिन, वे आज पांच तारा होटलों में बिकने से बचाने के लिए लाए गए हैं।


ये माननीय जब जनता के ही पैसे से कोई सड़क या स्कूल की दीवार बनवाते हैं तो जिद इस बात की होती है कि शिलापट्ट पर लिखा जाए कि ‘माननीय सांसद या विधायक के कर कमलों द्वारा शिलान्यास’।  दरअसल हमें अपने आईकॉन उन डॉक्टरों/नर्सों को बनाना चाहिए, जो अपने बच्चों को 47 दिनों से दूर घरों में छोड़कर कोरोना से जंग लड़ने में हमारी मदद कर रहे हैं। सही प्रतिमान बनाने का लाभ यह होगा कि समाज के अन्य लोगों में भी ऐसा ही प्रयास करने की इच्छा पनपेगी और हम सब सही सोच से फैसले कर सकेंगे। 


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