कुछ पुरानी अच्छी आदतों को दोबारा अपनाएं

पास नहीं आइए, हाथ न लगाइए, कीजिए नजारा दूर-दूर से, कीजिए इशारा दूर-दूर से…



यह 1952 की फिल्म ‘साकी’ का गीत है, जिसमें अभिनेता प्रेमनाथ और मधुबाला थे। राजिंदर कृष्ण ने इसे लिखा था। रामचंद्र द्वारा रचित और लता मंगेशकर द्वारा गाया गया ये गीत कोरोना वायरस की नई परिस्थितियों में जीने का सही तरीका प्रतीत होता है। कई लोग मुझसे सहमत होंगे कि उन दिनों ‘इशारों’ में एक तरह का रोमांच था। आप जिसे पसंद करते हैं, उसकी आंखों को पढ़ने में एक अलग खुशी मिलती थी। अपने प्रेमी के हमसे दूर जाते समय उसके पैरों की गति से ‘प्रेम भाव’ का हिसाब लगाते थे और लड़कों की आंखें उनकी प्रेमिका के हाथों के इशारों पर ही सेट होती थीं।


चूंकि अभी कोरोना वायरस का माहौल चल रहा है तो इस गीत को सुन कर मुझे मेरे नाना की याद आई जो स्वच्छता को लेकर बहुत तुनकमिजाज थे। कोई भी उनके कपड़ों, धोती और अन्य सामान को छू नहीं सकता था। उनके सभी कपड़े सफेद होते थे और वे खुद उन्हें धोया करते थे। जब वे 92 की उम्र में गिर गए थे तब उनके कपड़ों को नानी ने धोना शुरू किया, जब तक 96 की उम्र में उनका निधन हुआ।



उनकी धोती की सफेदी आजकल टीवी पर आने वाले वॉशिंग पाउडर के विज्ञापनों से कभी मैच नहीं की जा सकती। वो उतना सफेद था। मैं हमेशा सोचता था कि उनके कपड़े पत्थर पर 100 बार पीटे जाने को कैसे सहते होंगे। वे कपड़े सुखाने वाली रस्सी को भी रूमाल से साफ करते थे, उसके बाद कपड़े सूखने के लिए डालते थे। कुछ कहे जाने पर एक ही जवाब देते थे, ‘मैं ऐसा ही हूं और सभी को इसका पालन करना होगा।’ लेकिन मेरे साथ उनकी बॉन्डिंग अलग थी, क्योंकि मैं उनका पहला नवासा था। वे सभी सवाल जो दूसरे उनसे नहीं पूछ पाते थे, उन सवालों को मेरे माध्यम से पूछा जाता था। 



यह बात नाना को भी पता थी, इसलिए वे मेरे सवालों का ऊंची आवाज में जवाब देते थे, ताकि घर पर सभी को जवाब सुनाई दे जाए। जब मैंने उनसे पूछा कि मैं स्कूल से लौटकर आता हूं तो उन्हें गले क्यों नहीं लगा सकता या मैं कपड़े सुखाने वाली रस्सी पर कपड़ों को क्यों नहीं छू सकता? उन्होंने बहुत तार्किक जवाब दिया, बोले- ‘मेरी उम्र 70 वर्ष है और बाहरी कीटाणुओं के प्रति मेरी इम्युनिटी आप सभी की तुलना में बहुत कम है। इसलिए मुझे अपने आप को बचाने की जरूरत है, ताकि मैं आप पर बोझ न बन जाऊं।’



दूसरा नियम यह था कि वे अपनी चांदी की थाली में ही गर्म खाना खाया करते थे। ये थाली उन्हें तब दी गई थी, जब उनकी शादी मेरी नानी से हुई थी। तब वे सिर्फ 16 साल के थे। मतलब मेरी मेरी नानी शादी के वक्त नौ साल की थीं। दिलचस्प यह है कि दोनों केले के पत्तों या उन्हीं प्लेट में खाते हैं जो उन्हें अपनी शादी में मिली थीं। वे जहां भी जाते थे अपनी थाली साथ लेकर जाते थे और उन्हें खुद धोते थे। किसी को भी, यहां तक कि उनकी बेटी को भी इसे धोने की अनुमति नहीं थी, सिवाय उनके और मेरी नानी के। बहुत बाद में मुझे समझ आया कि वायरस और बीमारी के कारण वे अपनी प्लेटें खुद धोना पसंद करते थे, जबकि उनके बेटों के घर में कई नौकर थे।



गांव में हमारे घर का तीसरा और सबसे जरूरी नियम यह था कि जब कोई ट्रेन से यात्रा कर घर लौटता था (उस वक्त हमारा परिवार हवाई जहाज में यात्रा करने के योग्य नहीं था), उसके लिए सबसे पहले स्नान करना जरूरी होता था। फिर सभी बर्तन और कपड़े कुएं के पास रखकर ही घर में प्रवेश दिया जाता था। फिर वह ‘षाष्टांग नमस्कार’ करके आशीर्वाद लेते थे। कहीं से भी घर लौटने पर गले नहीं लगाया जाता था। नाना कभी भी स्टेशन पर किसी को छोड़ने या लेने नहीं जाते थे। ऐसी कई पुरानी आदतें हैं, लेकिन ऐसा नहीं कि ये सभी व्यावहारिक रूप से लागू की जा सकती हैं।


फंडा यह है कि अगर हम अभी ‘नमस्ते’ करने के पुराने तरीके को गंभीरता से ले रहे हैं, तो हमें पुरानी और अच्छी आदतें को भी दोबारा अपनाना चाहिए। हम कम से कम अपनी बुजुर्ग आबादी के लिए पुरानी आदतों को दोबारा अपनाएं, क्योंक बुजुर्गों की इम्युनिटी में कोरोना से लड़ने की क्षमता कम है।


 

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