विख्यात न्यायविद फ्रैंकफर्टर ने कहा था, ‘अदालत का अस्तित्व उसी दिन समाप्त हो जाना चाहिए जिस दिन वह तत्कालीन जनमत के दबाव में फैसला दे’। निर्भया के सभी चार अभियुक्तों को अंततः फांसी मिली और वह भी फांसी के चार घंटे पूर्व तक यानी रात के दो बजे तक देश की सबसे बड़ी अदालत और हाईकोर्ट के एक बार फिर उनकी याचिका को सुनकर और खारिज करने के बाद। इसके पहले विभिन्न अदालतें फांसी टालने के लिए बचाव पक्ष की नई-नई याचिकाओं को सुनकर तीन बार फांसी का दिन टालती रहीं, जिस पर हर बार देश की जनता का गुस्सा न्यायपालिका के खिलाफ बढ़ जाता था। लेकिन, न्यायपालिका में बैठे लोगों का दिमाग जनभावना से प्रभावित न होना ही सही न्याय दे सकता है, यह देश की न्यायपालिका ने एक बार फिर दिखा दिया।
बहरहाल, जनता जघन्य अपराध के किरदारों की मौत की खुशी में इस फांसी का संदेश शायद भूल गई। संदेश यह नहीं है कि कानून के हाथ सख्त हैं या देर से ही, लेकिन अपराधी की गर्दन तक पहुंच जाते हैं। संदेश यह है कि बच्चों के मां-बाप या अभिभावक अपने बच्चे को बेहतर नैतिक शिक्षा देने में कोताही न करें। आज का दिन सभी अभिभावकों के लिए सोचने का दिन है कि कैसे एक किशोर बलात्कारी या पशुवत सोच वाला युवा बनता है और क्या कमी उसके लालन-पालन में रही है, जिससे वह नैतिक पतन की घिनौनी राह पर चला जाता है।
समाजशास्त्री मानते हैं कि नैतिक शिक्षा देकर आने वाली पीढ़ी को बेहतर समाज बनाने वाली दो संस्थाएं हैं मां की गोद और प्राइमरी का शिक्षक। बढ़ती उपभोक्ता संस्कृति में इन दोनों ने अपना यह मूल कार्य छोड़ दिया। नई टेक्नोलॉजी में इंटरनेट की सहज उपलब्धता के कारण बालकों के अबोध मन में नैतिक तंतु विकसित होने से पहले ही पोर्नोग्राफी तक पहुंच उसके मष्तिष्क को दूषित कर देती है। शहरीकरण में विलुप्त होती सोशल पुलिसिंग और मां-बाप का बच्चों पर निगरानी में कम समय देना, उसे गलत राह पर ले जाने को उद्धत करता है। इसलिए प्रधानमंत्री ने ‘मन की बात’ के एक एपिसोड में कहा था कि ‘बेटे की गतिविधि पर भी अभिभावक वही पैनी नजर रखें, जो बेटियों के लिए रखते हैं’।